“धरोहर का रक्षक: गुरु तेग़ बहादुर की कहानी जो ओरंगज़ेब के सामने नहीं झुके”
11 अगस्त 1664: सिखों का एक जत्था बकाला पहुंचा
17वीं सदी के मध्य, दिल्ली से पंजाब के गाँव बकाला में एक अद्वितीय घटना हुई थी. इस घटना के माध्यम से एक महान योद्धा और धर्म गुरु, गुरु तेग बहादुर, ने अपने पुरुषार्थ और साहस से सिखों को नए दिशा दिखाई.
आठवें गुरु हरकिशन का एलान और उसका उत्तराधिकारी
इस अद्वितीय समय में, आठवें गुरु, गुरु हरकिशन, ने अपने निधन से पहले एक महत्वपूर्ण निर्णय किया. उन्होंने घोषित किया कि उनका उत्तराधिकारी बकाला में मिलेगा.
बकाला में गुरु की गद्दी देने का ऐलान
छह महीने बाद, बकाला में सिखों की एक खास सभा बुलाई गई, जिसमें तेग बहादुर को गुरु की गद्दी पर बैठाने का ऐलान किया गया. इस महत्वपूर्ण क्षण में, गुरदित्ता रंधावा ने गुरु के माथे पर केसर तिलक लगाकर उन्हें गुरु का उच्च स्थान दिखाया.
गुरु तेग बहादुर का प्रारंभिक जीवन
शुरूवात में, गुरु तेग बहादुर वहां के लोगों के बीच अधिक मुखर नहीं थे, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि ने उन्हें आम लोगों के बीच लोकप्रिय बना दिया. खुशवंत सिंह के अनुसार, गुरु तेग बहादुर की विशेषता उनके स्वभाव में थी.
धीरमल की साजिश और गुरु की रक्षा
एक बार, गुरु तेग बहादुर के खिलाफ धीरमल नामक व्यक्ति ने हत्या की कोशिश की, लेकिन भक्तों ने उनकी रक्षा की और साजिश फेल हो गई. यह घटना दिखाती है कि गुरु तेग बहादुर का योगदान और उनकी रक्षा के लिए लोग सदैव तैयार थे.
अमृतसर से कीरतपुर तक का सफर
तेग बहादुर ने बकाला को छोड़कर अमृतसर जाने का निर्णय लिया. हरमंदिर साहब के दरवाजे बंद कर दिए गए थे, और वहां से उन्होंने अपने पिता के बसाए शहर कीरतपुर जाने का निर्णय लिया.
आनंदपुर की स्थापना
तेग बहादुर ने कीरतपुर से पाँच किलोमीटर दूर एक नया गाँव बसाया, जिसका नाम आनंदपुर था. इस स्थान को उन्होंने एक आनंदमय और शांतिपूर्ण स्थान बनाया.
इस प्रकार, गुरु तेग बहादुर ने अपने जीवन में विभिन्न महत्वपूर्ण घटनाओं के माध्यम से सिखों को मार्गदर्शन किया और उन्हें एक महान आध्यात्मिक और सामाजिक नेता के रूप में माना जाता है. उनका योगदान सिख धर्म और सामाजिक समरसता की दिशा में अद्वितीय रहा है, जो आज भी हमारे समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान पर है.
इसी जगह को अब आनंदपुर साहिब के नाम से जाना जाता है, लेकिन यहाँ भी उनके दुश्मनों ने उन्हें चैन से नहीं रहने दिया.