पंडित देवीदीन पांडे: अयोध्या के लिए ज्वाला, राम मंदिर आंदोलन का असल नायक
पंडित देवीदीन पांडे: अयोध्या के लिए ज्वाला, राम मंदिर आंदोलन का असल नायक अगर असल में कहा जाए तो निश्चित तौर पे असल नायक पंडित जी ही थे जिन्होंने बाबर की सेना को धुल चटा दिया। यदि अयोध्या के संघर्षमय इतिहास को शब्दों में पिरोया जाए, तो पंडित देवीदीन पांडे का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा। वह व्यक्ति जिसने धर्म की ज्वाला से प्रेरित होकर अयोध्या के धरातल पर राममंदिर के लिए बाबर की सेना से लड़ने का पहला बिगुल बजाया और जिसके अनवरत प्रयत्नों से अंततः राम मंदिर का स्वप्न साकार होने की राह प्रशस्त हुई।
पंडित देवीदीन पांडे का जन्म 1490 में अयोध्या के समीप सनेथू गांव में हुआ था। उनके पिता पंडित दुल्लाराम एक साधारण किसान थे, लेकिन धर्म और पवित्रता के अनुयायी थे। यही संस्कार देवीदीन को विरासत में मिले। बचपन से ही उनकी आत्मा में भक्ति का स्वर झंकृत होता था। रामकथाओं से उनका मन पुलकित होता और रामचरितमानस उनके लबों पर सदा विराजमान रहता। उनके मन में बचपन से ही एक आग जली, राम की भूमि अयोध्या को उसके गौरव को लौटाने की आग।
पंडित देवीदीन ने अपने जीवन को समर्पित किया था भगवान राम के मंदिर की रक्षा के लिए। उनका जन्म सरयूपारीण ब्राह्मण परिवार में हुआ था, और उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त की थी। वे कर्मकांडी पुरोहित थे, लेकिन जब मुग़ल सेना ने अयोध्या को ध्वस्त करने का निर्णय किया, तो पंडित देवीदीन ने अपने पुरोहित धर्म को छोड़कर संघर्ष की ओर कदम बढ़ाया।उन्होंने अपनी ब्राह्मण समाज के लोगों को साथ लेकर बाबर सेना के खिलाफ उत्तरदाता भूमिका निभाई और युद्ध में हिस्सा लिया।उन्होंने इस युद्ध के लिए ९०००० लोगों की एक सेना बनायीं थी जिसमे ब्राह्मणो के अलावा छत्रिये और हिन्दू समाज का अलग अलग वर्ग शामिल था। इस युद्ध में पंडित देवीदीन ने 700 मुग़ल सैनिकों को अपने हाथोंसे मार डाला और वीरता की बुलंदी को छूने का अद्वितीय प्रमाण प्रस्तुत किया।
एक घड़ी क्षण में, एक मुग़ल सैनिक ने पंडित देवीदीन की ओर बढ़कर तलवार से ऐसा हमला किया कि पंडित जी का ऊपरी सिर काट डाला गया। लेकिन पंडित जी ने अपनी अद्वितीय शौर्य भरी लड़ाई को जारी रखते हुए अपने गमछे से अपना सिर बांधकर युद्ध को जारी रखा।
अयोध्या के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसमें पंडित देवीदीन पाण्डे ने अपने प्राणों की बाजी लगाई और श्रीराम मंदिर की रक्षा के लिए संघर्ष किया। इस वीर पुरुष की शौर्यगाथा ने हिन्दू समाज में एक अद्वितीय स्थान बनाया है।
उन्होंने मुग़ल सैनिकों के द्वारा हुए एक के बाद एक वार से घायल होकर भी अद्वितीय साहस और उत्साह के साथ युद्ध को जारी रखा। आखिरकार, उन्हें वीरगति की प्राप्ति हो गई, लेकिन उन्होंने अपने जीवन से पहले श्रीराम मंदिर की रक्षा को बनाए रखने का संकल्प किया।श्रीराम मंदिर की रक्षा के लिए पंडित देवीदीन पाण्डे ने अपने प्राणों की बाजी लगाई और अपने साहस और निष्ठा के साथ इतिहास मेंअमर हो गए। उनका यह अद्भुत संघर्ष ने हमें एक महान व्यक्ति की महात्मा राष्ट्रभक्ति का उदाहरण प्रदान किया है जो अपने लिए ही नहीं, बल्कि अपने धर्म और समाज के लिए भी अपने प्राणों की आहुति देने को तैयार थे।
बढ़ती उम्र के साथ उनका राष्ट्रप्रेम भी प्रबल होता गया। स्वतंत्रता संग्राम का यह सिपाही सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन में अग्रणी पंक्ति में दिखाई देता था। मुगलों के विरुद्ध उनका स्वर मुखर और हौसला अडिग था। यही वह संगठन जिसने राम मंदिर आंदोलन को जन-आंदोलन का रूप दिया।
उनके भाषण जनसमूह को राम मंदिर के लिए समर्पित करते थे। विरोध और अवरोधों के बावजूद उनका हौसला कभी डगमगाया नहीं। 1955 में मस्जिद के ताले पर प्रतीकात्मक कब्जा, तिलकधारी बाबा राम मंदिर आंदोलन का मील का पत्थर माना जाता है
उनके निश्चल प्रयासों के बावजूद आंदोलन कई मोड़ों से गुजरा। कठिनाइयां भी कम नहीं थीं। कई बार सरकार के कोपभाजन बने, जेल यात्राएं भी झेलीं। उनका मानना था कि सत्य का मार्ग, धर्म का मार्ग कभी हार नहीं सकता।
आखिरकार, 2023 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के साथ ही लंबे इंतजार के बाद राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। यद्यपि पंडित देवीदीन इस पावन क्षण को प्रत्यक्ष देखने के लिए नहीं थे,
पंडित देवीदीन पाण्डे को हम सदैव श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनके साहस और निष्ठा को सलाम करते हैं, जो ने अपने जीवन के साथी को समर्पित कर दिया श्रीराम मंदिर की सुरक्षा के लिए। उनकी बहादुरी हमें यह दिखाती है कि एक व्यक्ति किस प्रकार से अपने आदर्शों के लिए संघर्ष कर सकता है और अपने समाज की सुरक्षा के लिए कैसे अपने प्राणों की क़र्बानी दे सकता है।